adban

Friday, December 17, 2010

बेचारी टाई की दुर्दशा

बात पिछली गर्मियों की है, जब दोपहर को खाना खाने के बाद में आराम कर रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी , देखा तो वहा एक सेल्समन खड़ा था | 44 c तापमान व दम तोड़ देने वाली गर्मी में उसने टाई पहनी हुई थी, वो भी गले से एकदम सटाकर बंद की हुई थी | पूछने पर उसने बताया कि उनकी कंपनी का आदेश है कि हर कर्मचारी टाई पहनेगा क्योकि ये उनकी कंपनी कि शान कि सूचक है | कंपनी का कहना है कि लोग टाई देखकर अधिक प्रभावित होते है | 


यदि आप को ज्ञात हो तो , पश्चिमी देशो में सर्दी अधिक होने के कारण वहां टाई पहनने का प्रचलन है | यदि टाई गले तक सटाकर बंद की हो, तो ठंडी हवा गले तक नहीं पहुँच पाती| संक्षेप में, टाई पहनने का उदेश्य ठण्ड से बचाव है | परन्तु भारत में ये टाई आजकल "status symbol " बन गयी है | उस वेशभूषा का क्या लाभ , जिसमे आप स्वयं को सहज ही महसूस ना कर रहे हो |
उपरोक्त वाक्य पर मेरी कविता के रूप में प्रस्तुति :


आधुनिक होने की होड़ में, 
ये कैसी हवा है आई ,
आज आदमी की क़ाबलियत , 
बताती है उसकी टाई |


पश्चिमी परिधानों के बहकावे में, 
सब आँखे मूंद लगे है भागने,
अब तो सिर्फ सोने के काम आते है,
भारतीय संस्कृति के परिचायक कुर्ते और पायजामे |


सुना तो था, आज साबित भी हो गया,
ये भेडचाल कैसे हुई, 
इंसान सोचना समझना ही भूल गया |
कभी सर्दी से बचने के लिए,
गले तक बंद की जाती थी ,
आज भारत की तपती गर्मी में भी,
झूठी शान दिखाने के काम आती है ये टाई |


कभी अफसर वर्ग का परिधान रही ,
आज स्वयं को ही कोस रही ,
भले ही समाज ने तरक्की बहुत करी,
पर बेचारी टाई अफसर वर्ग से शुरू होकर,
निम्न  वर्ग तक आ गिरी |


अंत में यही कहना चाहता हूँ 


पहरावे से ना आंको व्यक्ति का ज्ञान, 
चमकता सोना नही कर सकता लोहे का काम,
पहचानना है तो सदगुणों को पहचानो,
क्योंकि केवल वेशभूषा नही बनाती किसी को महान |


-------------डिम्पल शर्मा ----------------

Friday, November 12, 2010

मंत्री जी किसी नये व्यक्ति को भी मौका दो



भारत एक लोकतान्त्रिक देश है | क्या सच में ?? जब हमारा सविधान लिखा गया, तो उस में सभी राजाओ की रियासतें समाप्त कर दी गयी व् भारत को एक गणतंत्र राज्य घोषित किया गया |


लेकिन आज आजादी के ६३ वर्ष बाद भी, जो लोग सत्ता में है, क्या  वो आम लोग है ?? क्या आम जनता में से किसी को नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त हुआ ??? जैसे राजाओ के राजकाल में राज्य की  सत्ता राजा की मृत्यु के बाद उसके वारिस को दे दी जाती थी , आज भी भारत में किसी नेता की मृत्यु के पश्चात उसके उतराधिकारी के तौर पर उसके पुत्र को ही चुना जाता है  | 


उदारण के तौर पर पंजाब में बादल परिवार( प्रकाश सिंह बादल  ने उप-मुख्यमंत्री पद किसी वरिष्ट अकाली नेता को न देकर अपने पुत्र सुखबीर बादल को ही दिया , उसमे वो भविष्य का मुख्यमंत्री देख रहे है )


इसी तरह से  जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार, केंद्र में गाँधी परिवार, हरियाणा में भजन लाल परिवार और इतने अनेको ही उदाहरण होंगे  | क्या किसी नेता ने अपनी पार्टी की कमान अपने बाद किसी अन्य व्यक्ति या पार्टी के वरिष्ट नेताओ को सौंपी है ??? नहीं, उनका प्रयास यही रहता है कि  अपने परिवार के ही किसी सदस्य को पार्टी की कमान दी जाये..... 


आम जनता को भले ही मतदान का अधिकार अवश्य प्राप्त हो गया हो , लेकिन अपने मत्त का प्रयोग उन्हें उन्ही राज परिवारों के वारिसो को चुनने के लिए करना पड़ता है...


इस विषय पर मेरी कविता के रूप में कुछ पंक्तिया 


देश के नेताओ का एक ही सपना,
उनके मरने के बाद,
मत्री बने उनका बेटा अपना |


कुर्सी को वो अपनी जागीर समझ बैठे है,
पीढ़ी  दर पीढ़ी उसे हंस्तान्त्रित करते रहते है,
बेटा भले ही परिवार चला न पता हो,
पर देश का बोझ उसके कन्धों पर थोप देते है |


गरीब बेचारा तो दो वक़्त कि रोटी में उलझा रहता है,
नौकरी कि चाह में राज नेताओ के तलवे चाटता रहता है,
शायद वो भी अच्छा नेता बन पता,
यदि इस देश में भाई भतीजावाद न होता |


लोकतंत्र तो केवल नाम मात्र ही है,
तंत्र तो कुछ गिने चुने ही चलाते है,
जिनके पूर्वज सत्ता में थे,
कानून आज भी वही लोग बनाते है |


बस अंतर है तो इस बात का, 
पहले बिना वोट के राजा बनते थे,
आज वोट लेकर राज चलाते है,
वोट डालने वाला तो वहीँ का वहीँ ,
मंत्री जी के बच्चे जरुर विदेश यात्रा पर जाते है |


आजादी के ६३ वर्षो बाद भी ,
हम कुछ राज परिवारों के गुलाम है ,
सविधान तो बना दिया गया ,
पर कुछ लोगों के हाथ ही उसकी कमान है|


आज नेता काबिलियत से नहीं ,
पिता के नाम से बनते है ,
मंत्री साहब भी पुत्र धर्म निभाते है,
जाते जाते सत्ता कि वसीयत ,
पुत्रो के ही  नाम करते है |


--------------------------डिम्पल शर्मा -------------------

Friday, November 5, 2010

राष्ट्रीय भाषा के उच्चारण पर जुर्र्माना


पिछले सप्ताह , मेरे भतीजे ने मुझे बताया की उसको स्कूल में हिंदी बोलने पर जुर्र्माना लगा दिया गया | मुझे ये समझ नही आया कि राष्ट्रीय भाषा के उच्चारण पर किस बात का जुर्र्माना ?? अवश्य ही हमें नयी भाषाओ को सीखना चाहिए, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हम किसी भी रूप में अपनी राष्ट्रीय भाषा का अपमान तो नही कर रहे...
इस घटना ने मेरी कल्पनाओ को कुछ ऐसा सोचने के  लिए मजबूर किया कि यदि हिंदी और अंग्रेजी भाषा की आपस में तकरार हो, तो क्या दृश्य पेश होगा ? कविता के रूप में मेरी चंद पंक्तियाँ 


अंग्रेजी भाषा हिंदी को 


अरे हिंदी, देखो मेरी माया,
देश विदेशो में मैंने खूब नाम कमाया,
आज पुरे संसार में मेरी गूंज है,
तू तो जिस देश की उपज है,
तुझे तो वो देश ही याद न रख पाया |


हिंदी विन्रमता से उत्तर देते हुए


बहन ! मैं तो देशवासियो को एक सूत्र में पिरोना चाहती थी,
दक्षिण में हिंदी कम बोली जाती थी ,
इसीलिए पुरे भारत को अंग्रेजी सीखने की आजादी दी,
यदि में भी चीन, जापान की तरह कट्टर हो जाती,
तू तो क्या , तेरी परछाई भी इस देश में न आ पाती |


अंग्रेजी फिर से हिंदी को 


हिंदी तुने तो कहा था कि , तू बहुत बलवान है,
वेद और ग्रन्थ इस का प्रमाण है ,
पर सच पूछे तो, तू तो अपंग है,
आज तेरा भारत ही, ना तेरे संग है,
मेरा उच्चारण करने वाला ज्ञानी,
तेरा तो स्नातक भी बेरंग है |


हिंदी फिर अंग्रेजी से 


अभिमान मत कर ओ अंग्रेजी,
दिन हर किसी का आता है,
उन्नति उसी को रास आती है,
जो पांव जमीन पर टिकाता है,
यदि तेरा उच्चारण मात्र ही ज्ञानी बना देता,
तो आज कोई भी अंग्रेज भिखारी ना होता,
मैं पूर्व पश्चिम को जोड़ने में बाधा ना बनना चाहती थी,
इसीलिए भारतवासियो को, तुझे सीखने की आजादी दी |


अंत में कुछ पंक्तियों के रूप में मेरी इच्छा 


पर ये हिंदी ने भी ना सोचा था,
कि एक दिन ऐसा भी आएगा,
आधुनिक होने के नाम पर,
उसका ही त्याग किया जायेगा|
लेकिन इस पतझड़ के बाद,
बसंत अवश्य ही आएगा,
होगा नया सवेरा ,
और भारत जाग जायेगा,
अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में,
क, ख, ग बोला जायेगा |


    जय हिंद


----------------डिम्पल शर्मा --------------

Wednesday, November 3, 2010

आज का बेरोजगार मिर्जा


मिर्जा साहिबा के बारे में तो आप सब ने पढ़ा ही होगा, इस कविता में मैंने ये दर्शाने का प्रयास किया है की यदि मिर्जा साहिबा इस सदी में होते, तो उन्हें उन्हें किन किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता , हास्य में ही सही , पर मैंने सच्चाई प्रकट करने का प्रयास किया है |
कल नींद में एक स्वप्न आया,
मिर्जा फिर से मानव रूप में आया,
पर इस बार साहिबा उसके साथ थी,
दोनों को ही प्रेम से ज्यादा, 
नौकरी की तलाश थी |

इस जन्म ना जाति ही कोई बाधा है,
ना परिवार को विरोध है,
बस डिग्री और नौकरी ही,
उनके प्यार में एकमात्र अवरोध है |

मिर्जे को पहले पूरे  करने पिता के सपने है,
शादी से पहले, पढाई के कर्जे चुकते करने है |

इस जन्म मिर्जे को ,साहिबा के भाइयो का डर नहीं,
वो तो खुद ३०२ और पुलिस से डरते है,
बस डर है तो, अच्छी नौकरी व  तनख्वा का,
पुरे करने ग्रहस्थी के खर्चे है  |

बिजली, पानी, भोजन सब धनं से ही मिलता है,
स्वंय तो गुजारा कर भी लूँ ,
पर साहिबा  का हार श्रृंगार ,
आज कल हजारो रूपये में मिलता है ,
यही सोच कर मिर्जा बेबस और उदास है,
विवाह से पहले उसे अच्छी नौकरी की तलाश है |

अब साहिबा भी मिर्जे को चुरी नही खिला सकती ,
अब वो बेचारी भी क्या करे ,
ऍम.बी. ऐ की विद्यार्थी है,
कुकिंग नही आ सकती  |

अंत में यही कहंता चाहता हूँ कि

भले ही समय बदल गया, 
पर परेशानिया कम ना हुई,
समाज तो सुधर गया, 
पर आर्थिक मंध्हाली कम ना हुई |

------------डिम्पल शर्मा ------

Monday, November 1, 2010

शहीदों की आवाज



आदर्श सोसाइटी घोटाले पर मेरी कविता के रूप में टिपण्णी 




आज मेरी कलम भी, लिखते हुए रो पड़ी,
उसने ये सोचा न था, ये दिन भी आएगा,
देश के रखवालो को ही, ये देश धोखा दे जायेगा |

आँखे नम हो गयी आज  उनकी भी, 
जो मौत से न डरे थे,
देश की रक्षा के लिए ,
जो कारगिल जाकर लड़े थे |

ऐसा होगा उनके साथ,
ये उन्होंने भी न सोचा था,
दो गज जमीन के लिए, 
उनके परिवारों को दिया धोखा आज |

वाह रे मेरे देश के नेता, 
क्या खूब नाम तुने कमाया है,
देश के लिए शहीद होने वालो ने,
क्या पुरस्कार तुमसे पाया है,
शहीदों ने अपनी नहीं, अपने परिवार की ख़ुशी मांगी थी,
पर वो तो बेचारे मुर्ख थे, जो हँसते हँसते मर गये,
आज उनके परिवार, दो गज जमीन से भी वंचित रहे |

-------डिम्पल शर्मा 

Sunday, October 31, 2010

दो दोस्त


दुनिया की इस भीड़ में, मंजिल की ओर निकल पड़े,
कुछ कर  दिखाने  के , होंसले लिए हुए,
अडचनों को लांघते , पर्वतो को चीरते,
कठिनाइयों की डगर पर , एक दूजे का साथ निभाते रहे |


तन में उनके जोश था, मन में एक विशवास था, 
ना हार का ही डर था, बस जीत का विशवास था,
सपनो की दुनिया को , वो हकीकत में बदलते गये,
कामयाबी के शिखर पर, वो बढ़ते गये बढ़ते गये |


आसान नही थी राह उनकी, रूकावटे अनेक थी ,
पर जीतने का जज्बा था, कुछ कर दिखने की चाह थी, 
सोच थी अलग उनकी, सबसे अलग पहचान थी ,
रोका बहुत दुनिया ने उन्हें, पर मंजिलो में ही उनकी जान थी |



मित्रता की मिसाल वो, इस दुनिया को सिखाते गये,
परिश्रम ओर विशवास से, मंजिल के करीब आते गये,
खुदा से ज्यादा उन्हें, खुद पर विशवास था,
क्योंकि उनकी मंजिल में ही, उनके खुदा का वास था |


धनं से था न मोह उन्हें,  बस अलग पहचान की आस थी,
यही थी मंजिल उनकी, यही उनकी प्यास थी ,
आखिर वो दिन आ गया, शहनाइया  बजने  लगी,
मंजिल उनके सामने थी, कामयाबी कदम चूमने लगी |


विजय गीत बजने लगे, आसमान भी गूंज उठा, 
जीत की ख़ुशी में, संसार थम सा गया ,
बन गये मिसाल वो, देश को उन पे नाज था,
परिश्रम  ओर विशवास ही उनकी विजय का राज था |


Dedicated to my friends
            ---- डिम्पल शर्मा 

Saturday, October 30, 2010

बेरोजगारी या फिर कुशल व निपुन कर्मचरियो कि कमी ???

आज जब मेनै अखबार पढ़ा, तो समझ मे ही नही आया कि मै एक ही देश कि खबरे पढ़ रहा हू..


खबरे थी, भारतीये सेना को खल रही है ११२३८ अफसरो की कमी व दूसरी खबर थी शिक्षित बेरोजगार युवको ने किया विधानसभा का घेराव., सिरफ सेना को ही नही, देश की अन्य औद्योगिक इकाइयो जैसे कि सुचना प्रोयोधिकी, ओतोमोबाइल, फारमासुतिकल कम्पनियो को भी कुशल व निपुन कर्मचारियो की कमी खल रही है | क्या भारतीय युवको मे योग्यता का अभाव  है ?

ऐसा नही है, कमी है तो इस देश की शिक्षा प्रनाली मे..यदि मै ऐसा कहू कि देश मे पदे लिखी मशीने तेयार की जारी है , जिनकी की काल्पनिक सोच व रचनात्मकता शुन्य है, तो कोइ बुराइ नही  होगी|  

एक कहावत है की जब तक हीरे को घिसा नही जाये, उसमे चमक नही आती, उसी तरह हमारे  देश के हीरो को जब तक किताबी गयान और पाठ्यक्रम की कैद से निकाल कर ,रचनात्मक शकती से सम्पुर्न नही किय जायेगा, इन हीरो की चमक अधूरी ही रहेगी |
उधारन के तोर पर अध्यापक महोदय कक्षा मे प्रशन पुछते है कि सविधान मे कितने मौलिक अधिकार है, छात्र भी याद किया हुआ उत्तर देता है कि सर ६ है, लेकिन अध्यापक महोदय ये नही पूछ्ते कि आप को क्या लगता है, कि
ये अधिकार काफी है, आपको क्या लगता है कि कोन सा अधिकार समाप्त कर देना चाहिये या फिर और कौन सा नया अधिकार सम्मिलित करना चाहिये ?? यही वजह है कि हमारे देश के विद्याथियो की सोचने की शक्ति शुन्य है, कोइ भी नया सीखने की बात नही करता, पाठ्यक्रम से बाहर सोचने
को छात्र समय की बर्बादी सम्झ्ते है...

पाठ्यक्रम भी ऐसा तैयार किया हुआ होता है कि नयी प्रोद्योगिकी से १० वर्ष पिछे चल रहा होता है ओर यदी ऐसा ही चलता रहा, तो हमे सिर्फ हमे ऐसी मशीने ही तयार मिलेगी जो सिर्फ सीखा सिखाया काम ही करेगी.

इसलिये यदि सच मे देश की अर्थ व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाना है, तो उद्योगो को सिर्फ मशीने नही, कुशल कर्मचारी प्रदान करने होगे | 

                                             - dimple  sharma